Stories, Poetry, Quotes

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Wednesday, 29 October 2014

हिंदी कविताएँ

एक पत्रिका के दफ़्तर मे काम  करने के बाद  मुझे इस बात का अनुभव हुआ  कि मेरी लिखी रचनाओं की सही जगह  उस दफ्तर मैं पड़ी कूड़े की टोकरी हैं क्यूंकि  वहां काम कर रहे हर कर्मचारी को यह बताया जाता हैं कि आप केवल  काम के लिए आएं हैं रचनाकार बनने के लिए नहीं ! फिर भी मैंने आस नहीं छोड़ी और किसी पत्रिका  या अखबार  के चक्कर  लगाएं या यूँ कहें धक्के  खायें  परन्तु वहां भी निराशा ही हाथ लगी!  भाई=भतीजावाद की रीतिबद्ध परिपाटी का अनुसरण हर कोई कर रहा  हैं! तो फिर क्यों कोई रीतिमुक्त परिपाटी को  आपनते हुएं  नए साहित्यकारों की कृतियों को स्थान  देगा ! आप सोच रहे होंगे कि यह दोनों शब्द हैं क्या? हमारे हिंदी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल का वर्णन  हैं उस समय के कवि रीतिबद्ध या रीतिमुक्त काव्य की रचना करते थे!  रीतिबद्ध कवि रटे रटायें नियमो का पालन करते हुयेँ अपनी कृति को सुन्दर बनाते थे! और  आज भ्रष्टाचार तथा पैसे के नियम सर्वोपरि हैं ! और रीतिमुक्त दफ्तर हैं भी  पता नहीं ! खैर इन  सब  बातों  से आहत होकर मैने एक कविता की रचना कर ही डाली और वह यह  थी -



  1. मेरी कविता


डायरी  वाला किराये का  मकान  छोड़कर

पत्रिका रूपी घर तलाशती मेरी कविता
पहुंच तो जाती हैं, संपादक की टेबल पर
बिना पढ़े, बिना कोई दृष्टि डाले
स्तरहीन बताकर टेबल से रद्दी  की टोकरी
का सफर तय  करती हैं मेरी कविता!

आज चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है
 छपती  हैं उसी की रचना जो संपादक का भाई या साला  हैं
यह कलयुग हैं, यहाँ कोई न धर्मयुद्ध न कर्मयुद्ध
नीतिविहीन दुर्योधन  नहीं, धर्मात्मा यु्धिष्ठर  नहीं
फिर क्यों प्रकाशक  के भाई-भतीजो से हार जाती हैं  मेरी कविता

हो सकता हैं मेरी कविता में बच्चन  जैसा रस नहीं
"निराला" जैसा मर्म नहीं, "महादेवी" जैसी शब्दों पर पकड़ नहीं,
"प्रसाद" जैसा सोन्दर्य  नहीं, "पंत" जैसी परिपक़्वता  नहीं
पर मुझे यह ज्ञात हैं कि
नयें साहित्यकरों की परिपाटी पर
खरी उतरती हैं मेरी कविता

भावों को क्या कभी कोई समझ पाएंगा ?
कोई हैं जिसने पाषाण हृदयँ नहीं पाया हैं
क्या  मेरे  शब्द किसी से स्नेह के बंधन को बांध सकेंगे?
या हमेशा तिरस्कृत  होती रहेंगी मेरी कविता?

कब तक यूँ वापिस लोटायी  जाएँगी
मोटे चश्मे में अनुभवी बने संपादको  को कब तक
कम उम्र की नज़र आएँगी!
इस सवाल का जवाब ढूंढ़ते-ढूंढ़ते बूढ़ी हो  रही हैं मेरी कविता!

  इस तरह मेरी कविता लिखने की शुरुआत  हुई क्यूंकि पहले तू मैं लेख ही लिखा करती थी  आज भी  मेरी लिखी कवितायेँ अभी भी मेरी डायरी  मैं विराजमान  हैं आज के लिए इतना ही!




हर  देश में कोई न कोई कमी  होती हैं नहीं? हमारे देश मैं भी हैं! फिर भी हमें अपने देश पर गर्व होता हैं और होना भी चाहिएं क्योंकि हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता पूरे  विश्व मैं सराहनीय हैं, परन्तु  इस संस्कृति की चमक दिखाकर बढ़ते  अपराधों से अपने देश को मैला  होने से बचाने  मैं विफल हो रहे हैं! हम भी किसी न  किसी बुराई का शिकार होतें हैं कभी भ्रष्टाचार, जातिवाद, आंतकवाद , भाईभतीजवाद आदि! आज कितनी  ही मासूम लड़कियों  की अस्मिता से खिलवाड़ हो रहा हैं और हमारा कानून, सरकार सब अपंग  व्यक्ति की तरह बेबस हैं! तभी ऐसे किसी हादसे  का शिकार एक नारी हैं जिसे अपने देश भारत पर किस तरह गर्व हैं यह कविता उसी के दर्द को बयान कर रही हैं.……………।



  1. मुझे गर्व हैं.....................


मुझे गर्व हैं कि  मैं भारत देश की नारी हूँ
एक ऐसी नारी जो हर तरफ से शोषित
अपने अधिकारों से वंचित
वीभत्स पुरुष की शुधा मिटने का माध्यम
एक नपुंसक कानून की व्यथा
छपती हूँ अख़बार मैं बनकर एक खबर
हाय ! मैं हर पाठक  की नज़रों में बेचारी हूँ
मुझे गर्व हैं कि   मैं भारत देश की नारी हूँ


मैं  चाँद पर भी पहुंची एवरेस्ट भी फ़तेह किया
खुश थी मैं महिला दिवस मनाकर मुझे दिया सम्मान
अब क्यों मूक हैं यह देश जब हर गाँव, हर शहर मैं मेरा हो  रहा अपमान
अबला से सबला ऐसी  बनी
कि आज हर बाप  की चिंता और  माँ की आँख का पानी हूँ
मुझे गर्व है.................


मुझे इन्साफ के लिए खुद ही लड़ाई लड़नी पड़ती हैं
आत्महत्या के नाम पर इस आज़ाद भारत मैं अपनी  क़ुरबानी देनी पड़ती हैं
मुआवजा भी मिल जाता हैं मेरी शहीदी पर
परिवारवाले भी सोचते हैं
चलों जाते-जाते  तरस खा गयी हमारी गरीबी पर
संसद मैं चर्चा, पुलिस की रिपोर्ट का परचा
इन नेताओं का चुनावी मुद्दा
आखिर चलती सरकार को गिराने की तैयारी  हूँ
मुझे गर्व हैं …………………

यह किसी पार्टी का प्रमोशन नहीं बस पसंद की बात है.............

झाड़ू 

चलेगा, घूमेगा, फिरेगा झाड़ू 
टिकेगा, संभलेगा और संग रहेगा झाड़ू
घोटालो की गंदगी  भ्रष्टाचार  की मिटटी हो
झूठे वादो  का सफाया कर
सुघड़, अटल हमेशा चिर रहेगा झाड़ू 

 हर आदमी की पुकार हैं, 
सबको इसी से आस हैं
कमल भी मुरझा गया, हाथ को हाथ नहीं
किसी अन्य का साथ नही
आगे बढ़कर, हाथ पकड़कर 
कीचड साफ़ करेगा झाड़ू

दिल्ली सबसे बड़ा हाथी हैं
हर किसी को इसी की सवारी करनी हैं
चाहे बीजेपी, कांग्रेस, बसपा या कोई और 
गलत बात पर भिड़ेगा 
दोषियो को घेरेगा झाड़ू


एक ऐसा व्यंजन है जो हम सब अकसर बड़े शौक से खाते  है इसको बनाने की विधि है- आपके थोड़े से ख्याल, स्वादनुसार योजनाएं और बनाना शुरू कर  दे! तैयार है ख्याली पुलाव! यह कितने लज़ीज़ बन पड़े हैं इस कविता के  जरिये देखिये-


ख्याली पुलाव 

मंत्री जी बोले पत्नी से-
हमारा चुनाव चिन्ह सूरज अब न होगा अस्त 
 विपक्ष के होंसले होंगे पस्त 
फिर तुम्हें एक नज़र देखने का भी समय न होगा
अन्य  महिलाओ और समाज सेवी कन्याओं  के साथ ही व्यस्त रहूँगा 
पत्नी बोली- हे प्राणप्रिय  वक़्त बताएंगा,
तुम्हारे सर पर जीत का सहेरा  सजेगा"
या तुम्हारे अरमानो पर  झाड़ू फिरेगा
जनता तुम चोरो की पार्टी को गई पहचान
तुम भी उनकी  तबीयत  और जरुरत पहचान लूँ 
यह ख्याली पुलाव अकेले ही  खाकर डकार लो!

लड़का बोला- चलो  प्रिय कर ले शादी
 थोड़ा दे योगदान बढ़ाने में देश की आबादी
लड़की बोली आज चढ़ा कैसा यह बुखार 
बोला बहुत घूम लिया बाइक पर 
अब लेनी हैं ससुर जी से कार 
चल परे हट देख अपनी शकल टिंडे
तुझ दहेज़ लोभी से  कौन करेगा  शादी
तेरे  जैसे  चार के साथ घूमकर  कर दूँ  उनकी बर्बादी 
 कही और अपनी   दाल पका ले
ख्याली पुलाव भी रख साथ में और मज़े से खा ले! 



मेरा देश भी चल रहा है

हवा चल रही है,
मेरा देश भी चल रहा है।
पेड़ काटे जा रहे हैं,
जंगल जलाए जा रहे हैं,
प्रदूषण बढ़ रहा है
लालच और घूस की खाद से
भ्रष्टाचार का पौधा फल-फूल रहा है।
हवा चल रही है,
मेरा देश भी चल रहा है।
बढ़ती महँगाई ने कमर तोड़ रखी है,
चीजें बेचने के नाम पर लूट मचा रखी है।
आए दिन डकैती पड़ती रहती है,
वजह डाकुओं ने गरीबी बता रखी है।
लोग भूखे मरें तो मरें,
नेताओं का पेट तो भर रहा है।
हवा चल रही है,
मेरा देश चल रहा है।
आए दिन धमाके होते रहते हैं,
जिनके बच्चे बाहर हों,
वो माँ-बाप कहाँ चैन से सोते हैं?
कुछ गद्दारों के रहते,
हर रोज किसी-न-किसी
माँ का सपूत दुश्मनों की गोली
से मर रहा है।
हवा चल रही है,
मेरा देश भी चल रहा है।

हम उस देश के वासी हैं,
जहाँ के बच्चे अब रोटी नहीं बरगर खाते हैं।
खिलौने भी चीन से मँगवाते हैं,
विदेशी कपड़े पहनकर इतराते हैं।
मल्टी-नेशनल के नाम पर फिर से
अंग्रेजियत हमारी तरफ बढ़ रही है,
हवा चल रही है,
मेरा देश भी चल रहा है।

कितनी भी गरमी-सर्दी या हो बरसात,
हवा हमेशा चलती रहती है।
कभी महसूस ही न हो,
फिर भी मौजूद रहती है।
लूट-मार चोरी डकैती,
महँगाई और आतंकवाद से जूझते हुए
मेरा देश उन्नति तो कर रहा है
हवा चल रही है न,
मेरा देश चल रहा है।


मच्छर 

सर्दी का मच्छर गर्मी का मच्छर
नाली का मच्छर गट्टर काको काटे
यह उल्लू का भाई-बंधु निशाचर मच्छर
बारिशो के सुहाने मौसम में मच्छर
दिन में सताएं और रात 
पकोड़े की हरी चटनी के साथ निकलता
यह बरसाती मच्छर 
विज्ञानं ने  आदमी को नुक्लिएर बम तक  दे दिया
मगर इन जालिमो से निपटने के लिए
कमज़ोर हिट या अलॉट थमा दिया
इनके जलने पर इवनिंग वॉक की तरह 
घूम कर वापिस आ जाता हैं   
फिर कानो में घो-घो करके हंसी उड़ाता है
यह निर्लज और ढीठ  मच्छर 
मैंने कभी रक्तदान नहीं किया
आज मेरा खून चूस-चूस  कर 
पूरी तरह से तंदुरूस्त है यह मच्छर
डेंगू-मलेरिया जैसी खतरनाक बीमारियों का दात्ता है
असमय  यमराज के दर्शन भी करवाता हैं
 हमारे तो हाथ ही जुड़वाते यह मच्छर
घर के कुरुक्षेत्र में कितने मच्छर मारे हैं
भारत के यन्त्र क्या चीन के रैकेट भी हारे  हैं
लोग कहते हैं अरे! यह तो प्रेम में दीवानी हैं
हमने कहा नहीं रे यह तो मच्छरों  की निशानी हैं
इन मच्छरों से कैसे जान बचानी  है
अब लगता हैं कहीं से कोई
मच्छर चालीसा ही मंगवानी हैं 
प्रभु के प्रताप के डर से
शायद  भाग जाएं यह मच्छर

क्या हैं कलाम......
राष्ट्रपति नहीं राष्ट्र का पिता थे वोः 
या यूँ कहो आज भी  हैं  वो
केवल व्यक्ति को जाना हैं 
परन्तु उसके कर्मो तो यही रह जाना  हैं
किसी धर्म या किसी जाति से  बंधे नहीं
स्नेह के जल से सींचते रहे ज्ञान  का पौधा
कभी थके नहीं कभी रुके नही
गुरु बनकर शिक्षा दे गए
जाते -जाते हमसे कोई दीक्षा ना ले गए
 हम स्वार्थी  सब कुचलते गए 
वह परोपकारी बन प्रकृति का  यह गुण भी हर गए
शुष्क हृदय तरल हों गए हैं 
बातें याद आयंगी,
सीख आपकी हर पीढ़ी दोहरायेंगी 
तेरा नाम हमेशा अमर रहेंगा
मंन तो  बहुत छोटा हैं  
तू हर तिरंगे के रंग में रहेंगा 
आपके पूरे जीवन को सलाम
आज पता चला क्या हैं कलाम........ 


कैसे मानं  लो.......

कैसे मानं  लो की दुनिया गोल हैं
जो मुझसे  बिछड गया व  बिछड़  गया
सामने न रहा तो ज़हन से भी उत्तर गया 
जो घर के पांस हैं वो  भी एक मुद्दत  से दूर हैं
जो दिल के बेहद करीब हैं वह वक़्त से मजबूर हैं
न हम दीद  कर पाते न वह नज़र आते
मिल   भी जाये किस मोड़  पर हम 
ऐसे गलियारे तो  हमारी  टक्कर मे भी नहीं आते
शायद हालातो का  ही दोष हैं 
सब के सब तो  बेक़सूर हैं
कैसे मानं  लो की दुनिया गोल  हैं

चुना हैं...........
आलू  नहीं कचालू भी नहीं
और  न ही भालू
जो जीत  गया वह  हैं लालू
पढ़े-लिखे बिहारी दिल्ली  में बस  गए
अंगूठा-टेक शराब और मीट  से पट गए
सुना हैं लालू लालटेन लेकर फिरेंगे
उन्हें यकीं हैं लालू के लल्लू पूरे  देश में  मिलेंगे
राबड़ी सर्दियो में भी रबड़ी का स्वाद ले रही हैं
और उनकी भैंसिया अपना चारा छुपा रही हैं
काश हमारा बाप भी लालू जैसा होता
तो मैं नोवी भी पांस कर लेता और सी.एम भी होता
आज हर बेटे  का यही गान हैं
सर्व शिक्षा या अशिक्षा एक ही समान हैं
मायावती भी लालू की अब दीवानी हैं
उसे भी साइकिल की हवा निकाल हाथी की सूंड घुमानी  हैं
कहने को स्वतंत्र मताधिकार हमारा आत्मसम्मान हैं
सच तो यह हैं कि हम
तो धर्म तथा जात-पात के ग़ुलाम हैं
अब यह मत कहना कि
प्रजा ने क्या कहा और राजा ने क्या सुना हैं
क्योकि यही वह राजा हैं
जिसे प्रजा ने खुद चुना हैं.........................................




मेरी किताबें.............................
सोने-चांदी  से भी बेशकीमती  हैं मेरी किताबें
कुछ पुरानी अजीज़ हैं
कुछ नयी दिल-ए-करीब हैं मेरी किताबें 
तन्हाई में साथ देती
शब्दों से मेरे मन को बांध लेती
ज्ञान का सागर बनकर मस्तिषक  की प्यास बुझाती हैं
यह मुझे एहसास कराती हैं मेरे छोटे होने का
और जो बड़े हैं उनके और भी बड़े होने का
ऐसे कई दिग्गज हैं जो अपने लेखन से चमत्कार करते हैं
उनकी कही कितनी बातें रोचक हैं
मेरी किताबें  मेरी प्रिय आलोचक हैं
हसी-ख़ुशी अपने अंदर समेट लेती हैं
अपना गम यूं  उड़ेल देती हैं
कभी-कभी मुझसे  भी ज्यादा ग़मगीन हैं मेरी किताबें
 कोई तो हैं जो मेरा  इंतज़ार करता हैं
जब बड़े चाव  से मैं इन्हे उठा  लेती हूँ
अपनी उंगलियो से इनके कोमल तन को छूती हू
फिर भावुक होकर सीने से लगा लेती हूँ
ना यह मुझे रोकती हैं न  टोकती हैं
क्योकि बहुत ज़हीन और बेहद हसीन हैं  मेरी किताबें
मैंने बड़े सलीके से  इन्हे अलमारी में  सजा  रखा हैं
मगर सच तो  यह हैं इन्हे मैंने नहीं
इन्होने मुझे संभाल  रखा हैं.............................

जय कन्हैया लाल की..

आज़ादी, वामपंथी बातें हैंआजकल बड़ी काम की 
बोलो जय कन्हैया लाल की
यह तो  हर चैनल या न्यूज़ पर  छा रखा हैं
इसे मीडिया ने  सर पर उठा  रखा हैं
स्वयं को भगत सिंह  बतलाया हैं
दो दिन जेल में  रहकर अपना देश याद आया  हैं
इस देश का खाकर यह नमक हराम शान से ज़िंदा हैं
इसकी करनी पर तो वह क्रांतिवीर भी शर्मिन्दा हैं
यह देशद्रोही हैं या आगे बनने वाले नेता
बात नहीं रह गयी अब सिर्फ जान पहचान की
इस बार होली पक्की हैं बंगाल की 
बोलो जय कन्हैया लाल की..................


मेरी होली .... 
मेरी होली भी मेरी तरह बड़ी हों गयी
मेरी होली  कभी भी पद्माकर के काव्य जैसी  नहीं  थी
वृन्दावन की गलियों वाली अबीर की फुहार नहीं थी
मगर सुबह छह बजे उठकर  गुब्बारे  मैंने भी फुलाएं हैं
पिचकारी या रंगो से भरे  टब से दूसरो को सरोबार किया हैं
कितनो आटे  के गुलाल से लाल -लाल  किया हैं 
मगर अब. .... 
होली मोबाइल तक सिमटी सी हैं
 रंगबिरंगी फोटो फेसबुक या  व्हाट्सअप पर लगती अच्छी सी हैं
प्रेम में  दिखावे के रंगो की मिलावट हैं
त्योहार में  भी इक्कीसवीं सदी वाली बनावट हैं
बचपन लपककर  जवानी का हाथ थाम  तो लेता हैं
मगर यही यौवन इसे बार-बार मायूस करता हैं
मेरे जैसे  कितनो के लिए आराम करने के लिए एक  छुट्टी हों गयी
मेरी होली भी मेरी तरह बड़ी हों गयी.  



खूबसूरती 
खूबसूरती देखने वाले की आँखों में होती है
पर वह नजर हर किसी के पास कहाँ होती है!
हमेशा चाँद क्यों रहा है शायरों की पसंद
क्योंकि सूरज में आग होती है।
कोई यह नहीं सोचता कि सूरज से हमारा
जीवन चल रहा है,
हर फल-फूल उससे खिल रहा है
दिन पहले छिपता है तभी तो रात होती है,
जो रोशनी को पसंद कर ले
उसके लिए चाँदनी की क्या बिसात होती है।
गुलाब के लिए तो हर कोई तड़पता है,
कोई है ऐसा, जिसे काँटों की चाहत होती है?
खूबसूरती देखने वाले की आँखों में होती है
पर वह नजर हर किसी के पास कहाँ होती है!
¨
इंतजार 
आजकल धरती का मन उदास रहता है,
सुना है सावन किसी और के पास रहता है।
इसी जलन की आग में मई, जून और जुलाई गुजर जाएँगे,
शायद इस बार भी बावरे बादल देर से आएँगे।
पतझड़ का मौसम नहीं है, फिर भी सूना-सूना रहता है,
कब होगा मिलन गुलाब पूछता रहता है।
क्या धरती और सावन के रिश्ते सुधर पाएँगे,
दोनों कौन से महीने में करीब आएँगे?
यह विरह की ज्वाला कभी तो शांत होगी,
एक बार फिर से दोनों में बात होगी।
हमें भी इंतजार है—
कब सावन पिया आएँगे,
अपनी रूठी प्रियतमा धरती को मनाएँगे।
इनके प्रेम की वर्षा में हम भी 
सम्मिलित हो जाएँगे।
ठंडी-ठंडी हवाओं में हम भी 
अपनों के संग खो जाएँगे।
मगर यह इंतजार कब खत्म होगा?
कब सावन का सितम कम होगा?
यही सोचते हुए दिन गुजर रहे हैं,
धरती के साथ-साथ हम भी बिफर रहे हैं।



पत्तझड़ बड़ी लम्बी हैं.………………

इस बार की पतझड  बड़ी लम्बी हैं
ऋतुएँ भी बदली, मौसम भी पलटा
पक्षी भी चिलाएं, तितलियाँ भी सुनायें 
सूरज लगा बतियाने धरती से
आती हैं हमेशा अपनी मर्ज़ी से
इस बार क्या हुआ 
चाँद भी लगा पूछने
सभी को चिंता सी लगती है 
इस बार की पतझड बड़ी लम्बी है !

नदियों का बहाव बड़ा तेज है
हवा का भी हल्का जोश हैं
पहाड़ों की बूढ़ी चोटियां भी देने लगी उलाहने
बिना फूलों की डालियां पहुंची मनाने
बरगद ने भी पंचायत बुलाई
कहना लगा नहीं आई तो होंगी रुसवाई 
यह बहार तो बड़ी हट्ठी लगती हैं
इस बार की पतझड  बड़ी लम्बी हैं........................ 

नया साल 

बेसकूनी और बेज़ारी इस गुज़रे वक़्त की कहानी है
अब इस नए साल से क्या उम्मीद लगानी है
 जनवरी-फ़रवरी  बीते कमाल 
कुछ लतीफे होठों को हिलाते रहे
हंसा-हंसा कर गालों को गुदगुदाते रहे
होली के  रंगों ने रंगा हमे 
कुछ ने तो छला हमे 
अनमना मार्च-अप्रैल करता रहा अरमानो को दरकिनार
कितनी ख्वाहिशो ने  दम  तोड़ा , कितने सपनो  ने मुँह मोड़ा
कुछ ख़ुशी के  पल मिलकर भी न मिले
पर हाँ कितने गम जबरदस्ती हमसे गले मिले
मई  और जून की गर्मी बड़ी प्रचंड थी
मन के मरूस्थल पर बैठी उदासी महा उद्दंड थी
हाय! यह कैसा सावन आया
धरती की प्यास तो ठीक से  बुझा न पाया
 जो बरसा जुलाई-अगस्त में वो कतरा-कतरा मेरी आंखों  का पानी हैं
अजमाइशो के पाठ पढ़ाए गए
मुश्किलों के सबक याद कराये गए
आईने से नहीं चेहरे से धूल हटाई 
सितम्बर-अक्टूबर ने बड़ी बेदर्दी से  यह बात समझाई
ज़िंदगी ने शायद अब भी कोई नयी किताब पढ़ानी  है
नवंबर मैं कोई  साथ छूटा
दिसंबर का महीना बड़ा सर्द था
क्या पता सर्द था, जर्द था, या  दर्द था
जो सामने है वो आज है,  कल को तो छोड़ना है
गाडी के स्टेशनों को  तो पीछे ही छूटना है
यादो की खिड़कियाँ बंद कर दो
संघर्ष के नए प्लेटफार्म पर एक और ट्रैन आनी है
 अब इस नए साल से क्या उम्मीद लगानी है


नमक 

सिर्फ  खाने का स्वाद बढ़ाने के काम आता हैं नमक ?
क्या कुछ अजीज रकीबों को भी भाता हैं नमक ?
यह गम तो  बदलते वक़्त का सिला है
अभी भी मेरा ज़ख़्म  सूखा कम और ज्यादा गीला है
शायद यह दर्द का दौर गुज़र भी जाएँ 
मगर मेरे अपनों का हथियार बन मुझे रुलाता है यह नमक
हमे आजतक सब्ज़ी में भी ठीक से डालना न आया
और लोगो के हाथ का हुनर  बन जले  पर छिड़का जाता हैं यह नमक

 इंसान 

तुम्हे  ये नहीं  बोलना   चाहिए  था 
तुम्हारे शब्द  भेदी  बाण 
मेरे  हृदय  को भेद  गए 
वो  कर्कश  स्वर 
मेरे   मन के  मरुस्थल में  गूँज  रहा  था
मेरा  जहन  मुझसे  पूछ  रहा  था
कि  कर्मो  के बंधन  से कोई बच  पाया  हैं 
भगवान को  भी  किसी  बहेलिये  ने तीर मारा था
कृष्णा  क्षमा करके  चले  गए 
वो  भगवान  थे 
मैं  इंसान हूँ 
मुझमे  इतना  साहस  नहीं
शायद
तभी बार-बार  कह  रही  हूँ कि
तुम्हे  ये नहीं  बोलना   चाहिए  था................

कमजोर

बस  में भीड़ भरी  पड़ी  थी
मैं  भी  किसी  कोने  में  लटकी  पड़ी  थी
तभी  एक  गर्भवती  महिला  बस  में  चढ़ी
पर  किसी  ने  भी  सीट  खाली  न  करी
दस  मिनट  के  सफर  के बाद
किसी  का  तो  स्टॉप  आ गया
वो  भी  बैठ  गयी
सयोग से मेरा भी उसके साथ  बैठना  हो गया
मैं  अजनबियों से  बात  नहीं  करती
पर  उसका  गुबार  शब्दों  में  निकल  रहा  था
मैं  मजबूर  और  कमजोर  हूँ
फिर  भी  लोगो  को दया  नहीं  आती
किसी  से  सीट  क्यों  नहीं  दी  जाती
एक नज़र  भरकर  उसको  देखा और  कहा
कमजोर तो  वो पुरुष  हैं  जिनका  पौरुष
औरतो  पर  हाथ  उठाने तक  सीमित  हैं
इसलिए  वो  उठ  नहीं  सकते
यह  औरतें  जिनकी  ज़बान  सास-बहू
की  बुराई  करने से नहीं थकती
मगर जान पैरो  में  ज़रूर  हैं  अटकती
तुम तो  इस  परिस्थिति में पचास  लोगो  का सामना  कर
इस  भरी  बस  मैं  चढ़ी  हो
तुम  कमजोर  नहीं  बहादुर  बड़ी हो
मेरा  गंतव्य  आ गया  मैं  उठने  को तैयार  थी
उस महिला  की आँखों  में  धन्यवाद
और  चेहरे  पर  मुस्कान  थी
अब  उसे  पता  चल चुका  था
कि वह  कमजोर  नहीं  एक बहादुर  इंसान  थी

ओलंपिक्स  बीत  गए  और सभी की अलग-अलग  से प्रतिक्रियाएं  थी  मेरी  भी हैं  जो  इस  कविता के रूप  में  व्यक्त  हुई  हैं........

ब्रज़ीललललललललल्ल 
ल ला ल ला ल ला ल ला 
रियो रियो रियो रियो रियो
जो जीते वे मज़े से खाओ पियो
जो खाली हाथ आए वे भी जियो जियो जियो
जीतना नहीं लड़ना ज़रूरी हैं
जीवन एक कर्मक्षेत्र हैं
यहाँ बिना खेले रह नहीं सकते
परिणाम जो भी हो स्वयं से हार नहीं सकते
जितने पैसे हम ईनाम में लगाते हैं
उतने अगर खेलो की तैयारी में लगाएंगे
तो सोचो भारत के लाल कितना कमाल कर दिखाएंगे
केवल खिलाड़ियों की ज़िम्मेदारी नहीं हैं
यह हार तो सरकार की भी सांझेदारी हैं
उम्मीद हैं इसे हौसले से रोशन करेंगे
आज चांदी, पीतल लाये हैं
कल सोने से घर भरेंगे
निराशा से न भरा हों यह दिल
तो बीती बात बिसार कर कहो
ब्राज़ीललल ब्रज़ीललल ब्राज़ीललललललल
ल ला ल ला ल ला ल ला


एक  साधारण  मानव 
क्या ! मेरी  कमिया  निकालते-निकालते  थक  गए  हो ?
अनायास ही फब्तियां कसते-कसते  रुक गये हों  
तुम तो  सम्पूर्ण हो, परिपूर्ण  हो
अपूर्णता  तुम्हे छू  नहीं  पाई 
चाहे ढाई कदम  या  फिर सीधी  चाल 
कोई शह  तुम्हे  मात  नहीं दे पाई
याद  हैं  तुम्हारे शब्द -भेदी  बाण 
कैसे  मेरे   हृदय  को  बेध  डालते  थे 
तुम वीर  हो  अर्जुन  की तरह 
मगर आज वो बहेलिया ज्यादा  बहादुर  लगता  हैं 
जिसने श्री  कृष्ण  को मारा  था
तुम्हारी  ख़ामोशी देखकर बस इतना समझ आया हैं 
वक़्त  ने  तुम्हे  भी कोई नया  पाठ  पढ़ाया  हैं
मैं  तभी  मौन  थी  जब  तुम  वाचाल  थे
मैं  आज  भी  मौन  हो 
जब  तुम  मूक  हो 
मैं  तुम्हारी  तरह  नहीं  बन  सकती
मुझे वो  संघर्ष  समझ  में  आता  हैं 
जो  चरम  पर पहुँचते हुए
नियति के हाथो से चोट खा पाँव  में छाले  दे जाता  हैं 
हां  मैं  तुम्हारी  तरह  नहीं  हो  सकती 
कोई  देवता  नहीं एक  साधारण  मानव 
केवल एक  साधारण  मानव.....................


वैलेंटाइन डे
यह शरीर पर इतनी पट्टियां क्यों बंधी?
बस पूछ मत यार !!!!
यह दिल्लगी लगी-लगी बड़ी ज़ोर से लगी
कल तो तुम वैलेंटाइन मनाने गए थे?
या किसी बगदादी के यहाँ फस गए थे?
ऐसा वैलेंटाइन मनाकर आया हूँ  कि
यूँ कहो जान बचाकर आया हूँ
 कल तेरी भाभी ने करी धुनाई
यह हालत उसने ही तो बनाई पर
भाभी तो तुझसे बहुत प्यार करती हैं
हां प्यार तो बहुत करती हैं पर 
अपने मायके वालो से भी बात करती हैं !
इसीलिए पहले बिंदी लगाती थी
अब बेलन धरती हैं
मैं जिहादी बना यहाँ-वहाँ फिर रहा हूँ 
कभी साँस से तो कभी साले से डर रहा हूँ
इस वैलेंटाइन तुमने होटल में डिनर रखा था 
वो तो ऑफिस की मोना को सेट कर रखा था
तुम भी दोस्त मेरी वाली भूल न दोहराना
वैलेंटाइन विश भी बीवी को ही करना
और बीवी के साथ ही मनाना !!!!

एंटी  रोमियो

उतर  प्रदेश  में  एंटी  रोमियो के  ऑपरेशन  के  चलते  क्या  स्थिति  हैं  इस  पर  चर्चा  करते हैं............  

रोमियो, रोमियो  छुप  गए  किस  वीराने  में 
ओ जुलिये  में  पड़ा  हूं  चार  दिन  से  यू.पी के  थाने  में 
तुम्हारी  आँखें  क्यों  सूज़ी  पड़ी  हैं 
अरे ! इन  पुलिस वालो  से  बड़ी  मार  पड़ी  हैं
कहा  था  रोमियो!!! 
कॉलेज  के  बाहर  आकर  गाने  मत  गाना 
जाना  मैं  तो  हूँ  तेरा  एक  दीवाना
मुझे  क्या  पता  था  महँगा  पड़  जाएगा  यह  गाना गाना 
तुम्हारा  इसलिए  बुरा  हाल  हैं 
क्योंकि अबकी  बार  योगी  सरकार  हैं 
सुनो! हम सब  आशिको  को  बाहर  निकालो  
लैला हीर, को भी मजनू  राँझा का हाल बता डालो
ठीक हैं  फिर  मिलने  आती  हूँ
किसी  बीजेपी  के  कार्यकर्ता  से  सेटिंग  कर बाहर  निकलवाती हूँ 

आखिर  रोमियो  की  ज़मानत  हों गयी  पर  इतनी  धुलाई   के बाद  उसके  सुर  और  ताल  दोनों  बदल  गए  हैं  अब  वह जूलिएट  से  क्या  कहता  हैं सुनिए 

मेरे  महबूब  कहीं  और  मिला  कर  मुझसे~~~~~ 
तेरे  कॉलेज  या  घर  के बाहर  आना  अब  मुमकिन नहीं 
फिर  से  जेल  जाने  के  होंसले  पस्त  हैं 
जेल  का  खाना  खाकर  लग  गए  उलटी दस्त  हैं  
यह  बेदर्द  आरएसएस  वाले  हमारी  मुहबबत  से  वाकिफ  नहीं 
क्योंकि  इन्होने  कभी  घर  बसाना  नहीं 
आ जा  जुलिये  अब  बाग़  बगीचे  भी  आग  बरसाएँगे 
कल  से  हम मॉर्निंग  शो  देखने  जाएंगे 
या  फिर  किसी  सुनसान  हाईवे  या  घनघोर  जंगल  होगा 
प्यार  किया  हैं  तो  पैसा  भी  खर्चना  होगा
इतिहास  बदलता  नहीं  खुद  को दोहरता  हैं 
पहले  मजनू  पत्थर  खाता  था  अब  डंडे खाता  हैं 
माउंटेन डियो से  न  बुझे  इश्क़  की  ऐसी  प्यास  हैं 
सच  तो  यह  हैं  कि   अब यू.पी  में  न  रास  है  न  रोमांस  हैं 
खुदा  न  करे  आशिक़ो  का  ज़नाज़ा चढ़े  सिर  किसी के  
मेरे  महबूब  कहीं  और  मिला  कर  मुझसे~~~~~ 



मैंने अभी पिछले महीने दिल्ली से बाहर जाकर दस दिन का हिंदी प्रशिक्षण वर्ग किया उसी अनुभव को कविता में लिखे बिना नहीं रहा जा रहा था एक नाटक जो बहुत लम्बा खिच गया---------

हिंदी प्रशिक्षण वर्ग बड़ा लम्बा हो गया
अगस्त में गए थे सितम्बर हो गया
सबने पूछा तुमने क्या सीखा
हमने सीखा---कि समय का दुरप्रयोग कैसे करे?
भरपूर भूख वाले अल्पाहार कैसे करे
जादूगर बनकर जाओ शिक्षक को घर छोड़ आऊं
पाठ-योजना बनाओ और पाठ्यक्रम भूल जाओ
उन्होंने ऐसे गले लगाया कोई तो उनसे मिले
जैसे मच्छरों और कीड़ो को नए शिकार आन मिले
खाने में दाल “माजा” और अरबी “सूप” थे
रायता लेने पर हो जाता था बवाल
दाल छोले हैं या दाल यह भी था इक सवाल
यह संघ वाले मोदी जी को भूल गए
मगर हमने उनका मान रखा था
वहा भी स्वछता अभियान चलाये रखा था
सर्टिफिकेट ऐसे बटा जैसे बटे कोई परचा
कक्षा कम वो लगती थी संसद की चर्चा
ऐसा नहीं की कोई ज्ञानी नहीं आए
हम इस अज्ञान के सागर से ज्ञान के दो-चार लोटे भर लाए
कुछ गैरो से अपनों सा प्यार मिला
प्रकर्ति से माँ सा दुलार मिला
इसी तरह हर पल बीतने लगे
पहले दिन गिनते थे फिर रातें गिनने लगे
पहले ही बहुत कुछ था
अब जीवन में एक और अचम्भा हो गया
हिंदी प्रशिक्षण वर्ग बड़ा लम्बा हो गया

हिंदी दिवस पर विशेष
एक समय था जब चाणक्य ने अखंड भारत का सपना देखते हुए सम्पूर्ण भारतीयों को एक मंत्र दिया था जय माँ भारती..तब भी चाणक्य लालची राजा और विदेशी सिकंदर से भारत को बचाना चाहते थे। आज भी इस देश में ऐसी वोटो की राजनीति हैं और ऐसी अंधी आधुनिक होने की ऐसी स्थिति बनी हुई हैं कि हम अंग्रेज़ बनने के लिए तत्पर हैं तभी तो विदेशी भले ही चले गए हो पर अपनी भाषा यही छोड़कर चले गए हैं क्योकि उन्हें शायद पता था की हम भारतीय समय के साथ बदलते हुए अपने आदर्श भी भूल जायेंगे। तो क्यों न हम फिर से उन्ही अंग्रजो की तरह उनकी भाषा को भी पूरी तरह अपने हिन्द से निकाल दे। इसीलिए आज ज़रूरत हैं सभी भारतीयों को फिर से एकता सूत्र में बांधने की। इसीलिए “भारती” का आह्वान करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। और हिंदी भाषा ही हमे फिर से एक होकर सच्चे देशभक्त होने का सौभाग्य दे सकती हैं....
जिसका धर्म, कर्म, व्यवहार भी हिन्दी हैं
वही सच्चा भारतीय हैं जिसका श्रृंगार भी हिंदी है
वो माँ हैं मेरी उससे प्रेम की डोर नहीं टूटती
मैं कोई भी भाषा बोल लो मेरी हिन्दी नहीं छूटती
भारतीय हो तो भारती को अपनाना चाहिए
हिन्दी से जुड़ा हर नाम अपनाना चाहिए
धन्य हैं वो लोग जो आज भी संस्कृति संभाले हुए हैं
कुछ ऐसे भी हैं जो हृदय से अपनी भाषा निकाले हुए हैं
मैंने अंग्रेजी को सिर्फ उस हिसाब से ही सीखा हैं
मेहमाननवाज़ी निभाने का मेरा अपना ही सलीका’ हैं
निरक्षर को भी ज्ञान की ज्योति दिखलाती हैं
पूरे देश में कही भी रह लो सबको हिन्दी समझ में आती हैं
हिन्दू हैं हम हिंदी हैं पूरे हिंदुस्तान की
राष्ट्रभाषा को बोलना बात हैं हमारे मान-सम्मान की
हिन्दी भारती हैं इसे इस तरह अपनाकर रखो
बात सभी से करों इसे रिश्तेदारी निभाकर रखो
क्यों हम हिंदी बोलने में संकोच करे
यह पहचान हैं हमारी इसे लेकर आगे बढ़े
मेरे भारत मेरी जन्मभूमि को सलाम
इस मिटटी, इस भाषा इस कर्मभूमि को सलाम


एक   भक्त  वो  होता  हैं  जो  उसकी  मर्ज़ी  में  रहता  हैं  और  समर्थक  वो  होता   हैं  कि  जिसके  भगवान   की  मर्ज़ी  न  हूँ  तो  वह  सबकी  मर्ज़ी  बिगाड़  देता  हैं !  बाबा के  भक्त और  समर्थक में   क्या  भेद  हैं  उससे  बातचीत  करकर  पता  चला....  

हमने  पूछा  कि  तुम बाबा  के  भक्त  हो ?
उसने  कहा  मैं  तो  बाबा  का  समर्थक  हूँ
अच्छा तुम  अर्थ को अर्थहीन करने वाले निरर्थक हो
हमने  सुना  हैं  तुम्हारा  बाबा  "बलात " कारी हैं 
नहीं  वो  तो केवल एक  चमत्कारी हैं
खून-खराबा  भी  बहुत  किया   
धर्म के नाम पर अनाचार और अत्याचार भी  किया  
अरे ! नहीं  उन्होंने  तो विशेष  धरम   का  प्रचार  किया  है
 कुछ  ज्ञान विशेष  ज्ञान  की बातें  हमे  भी  समझाओ
हम  तो  मामूली  इंसान  थे हम  ऐसे  तर  गए 
सीधे  समर्थक  से  गुंडे   बन  गए 
आज  हमारी  जेब  भारी  हैं 
बाबा  तो  धर्म  के  व्यापारी  हैं 
ऐसा  कर  पाप  कमा  रहे  हो 
तुम  भी  तो  पापी  हो  तभी  अपने  विश्वास  की  बलि  चढ़ाते  हो
अपनी  मासूम  बेटियों को पशु समझ 
भेड़ियो  के  आगे डाल उनकी भूख   मिटाते हो
यह  तुम्हारी करनी  के  फल सामने  आए  हैं
तुमने ही ऐसे  कितने ही आसाराम  और  राम-रहीम  बनाये हैं 
मैं  तो  अपने  अन्नदाता  के  आगे  नतमस्तक हूँ 
मैं  भक्त  कम  एक  समर्थक  हूँ। ....... 


द्रोपदी  का पत्र 

प्रिय नारी
तुझे अबला कहो, सबला या  बेचारी
क्षमा करना देवी तेरी भावनाओ को आहत करने की मंशा नहीं  हैं
इस वीभत्स पुरष का अनाचार अभी तक रुका नहीं  हैं 
मैं सोच रही थी कि  अगर उस  समय भी सविधान होता
 तो में कोर्ट के चक्कर लगाती रहती
और दुशासन   बड़ी शान से बरी होता
मेरे केश तो खुले रह जाते
और यह हृदय सदा के लिए छलनी होता
तुम्हारी सरकार का यह कैसा इन्साफ हैं
बालिग़ अपराध करके नाबालिग  की सजा माफ़ हैं
आज भी न्याय किसी सभा में परास्त हो रहा  हैं
तेरा इंन अंधे, बहरे  अहंकारियों के बीच हास-परिहास हो रहा  हैं 
यह चाहते तो ऐसा सम्मान कराते
उस क्रूर को राष्टपति के  हाथो सिलाई मशीन दिलवाते
इस पत्र का अंत इस बात  से करती हूँ
 जो दिखता हैं  वही  छीन लिया जाता हैं
चीर तो चीर हैं किसी सभा में  भी खीच लिया जाता हैं
तेरा आत्मसम्मान इस अस्मिता से कही बड़ा हैं
याद रखना इसी गौरव के आगे पूरा कौरव वंश
कुरुक्षेत्र की रणभूमि  पर हारकर गिरा पड़ा हैं
रीति-रिवाज हमसे हैं हम उनसे नहीं  हैं
मंन की पवित्रता किसी के गिराने से गिरी नहीं हैं
गली में चलते हुए कोई पागल कुत्ता काट जाये
तो घर  से निकलना  बंद  नहीं करना
मैं भी नहीं डरी तू  भी न  डरना
आज तू कितने दुशासन और जयद्रथो से घिरी पड़ी हैं
सच तो यह हैं कि तू  द्रोपदी से  भी बड़ी हैं 
 तू  द्रोपदी से  भी बड़ी हैं..........................


शादी

कब  होगी  शादी ?
कब  होगी  शादी ?
मैंने  भी  कह दिया--
शादी, शादी तो हो  जाएँगी
शादी की कोई  चिंता  नहीं हैं
क्योंकि इस देश में लालची, स्वार्थी और बेहिस 
लोगों की  कोई  कमी  नहीं हैं 
सवाल  का  यह प्रत्युत्तर  था 
मेरा  जवाब  सुनकर  वह  निरुत्तर  था 
मुझे तो इस  दुनिया को  जवाब  देना  आता  हैं 
बुरा  तो  उनके  लिए  लगता  हैं  जिनकी आँखों में 
इस  सवाल को  सुनकर  दर्द  उतर  आता  हैं
अपने  दुःख  और  परेशानी का  इलज़ाम चार लोगो
पर लगाना आसान हैं
पर  अकेले  मुश्किलों का सामना कर जो जीते हैं
उनके संघर्ष  की  ज़िन्दगी  हमे नज़र  नहीं  आती 
खुशियाँ  तारीख़ें नहीं  तक़दीर  लाती  हैं 
यह  बात  कभी किसी  को  समझ  नहीं  आती !


आज समूचे विश्व  में  अंतरराष्ट्रीय महिला  दिवस मनाया  जा  रहा  हैं  परन्तु  कटु  सच्चाई  यह  हैं  कि  इस  देश  की  65% महिलाओ  को  यह  नहीं  पता  कि  महिला  दिवस  क्या  हैं? ज़िन्दगी  की  सुबह  बेलन  से  शुरू  हुई  और  शाम  बेलन  पर  ही  खत्म  हो  जाती  है ! इस  समाज  की  मानसिकता  इस  देश  की नारी  के  लिए  पहले  भी  हीन थी  और  आज  भी तुच्छ  हैं बस  "मॉडर्न " परत  चढ़  गई  हैं ! मेरी  यह  कविता महिला  दिवस  की  सच्चाई  को  बयां  होती  हैं  मगर  हमे  हिम्मत  नहीं हारनी  आगे  बढ़ते  जाना  हैं। ....     

कौन भावग्रस्त?

"आभावग्रस्त  बेटियों के सामूहिक विवाह में  मदद  प्रदान  करे"
एक बड़े से पोस्टर की पंक्तियाँ पढ़कर आंखो में आँसू 
और सवाल दिमाग में उतर आए
हमेशा  बेटियाँ  ही  आभावग्रस्त  क्यों  होती हैं ?
बेटे  क्यों  नहीं  ?
अगर  आभावग्रस्त  न होते  तो  किसी 
सामूहिक  विवाह  में  चक्कर  लगाते 
अपितु दहेज़ के गठबंधन से फेरे लगाते
पर हमेशा बेटियाँ ही बनती हैं ऐसे किसी विज्ञापन का आधार
क्योंकि बेटियाँ प्रतीक हैं "बेचारी, कमज़ोरी,
दया  मजबूरी, हमदर्दी और भीख"  का 
यह  समाज  कभी  बेटियों  की  बलि चढ़ाता  हैं  तो 
कभी  उन्हें  ढाल बनाकर  अपनी  गर्दन  बचाता  हैं
बात तो  बराबरी  की  हैं  ही नहीं, न  हो  सकती  हैं 
नारियों का दर्जा कहीं  ऊँचा  हैं पुरषो  से
इसीलिए  यह  पंक्ति  बदल दो 
आभावग्रस्त  "बेटियाँ"  नहीं  अब " बेटे"  भी  कर दो   




रक्षा बन्धन

लोगो को बड़ी हमदर्दी हैं 
कि माँ के तीन भाई हैं
तुम्हारा एक भी नहीं
सच पूछो तो मुझे
इस बात का गिला भी नहीं
मुझे अच्छा भी नहीं लगता
जब कोई बहन कहता हैं या मानता हैं
यह लफ्ज़ हैं जो उलझ जाते हैं
यह रिश्ते तो रास्ते में अटक जाते हैं
पुरुष का पोरुष किसी बंधन में बंधना नहीं हैं
उसे तो चाहिए नारी किसी भी
रूप में पुरुष के जीवन में आए
उसका सम्मान होना चाहिए
उसकी रक्षा किसी धागे या सूत्र
तक सीमित नहीं हैं
इस देश की नारी की रक्षा हेतु
हुमायू तभी न आए जब कर्णावती बुलाए
वो तो हर परिस्थिति में कर्णावती को बचाए
मुझे अपने जीवन में ऐसा बंधन चाहिए
जो समाज को सोचने पर मजबूर करे
इस सोच का ऐसा मंथन चाहिए
कुछ परिवर्तन हो तो ठीक हैं
वरना इस बात का कोई अफ़सोस नहीं
कि माँ के तीन भाई हैं
और मेरा एक भी नहीं.......

इस  दिवाली.......

हर  धर्म  में एक  अलग कहानी  नज़र  आती  हैं
यह दिवाली  ही  तो  हैं  जो  प्रेम  और  भाईचारा  बढ़ाती  हैं  

इस  दिवाली  चाहे मंदिर बनाओ, फुलझडी़ जलाओ या अनार
राम  तो  तभी  मिलेंगे  जब  छूटेगा   यह  अहंकर

माता  कौशल्या  ने  पूछा, "रावण  को राम  तुमने  मारा ?
माँ रावण को  मैंने नही मारा रावण को  तो  "मैं " ने  मारा

हर युग में सीता लक्ष्मण रेखा लाघेंगी इन्हें मत रोको परिवर्तन लाने दो
इस  दिवाली अपने घर की लक्ष्मी को भी रावण  जलाने  दो
  
अनाथ बच्चे मिठाई से ख़ुश, पटाख़े जलाये बिना परिंदों का ख्याल रखते हैं
जिनके खुद के दिल टूटे हुए होते हैं वह दूसरो के दिल कहा तोड़ते हैं

कोई  कुल्हाड़ी चलाए तो दरख्तों तुमसे लिपट भी जाओ
पर पटाखों  के  धुए  से  तुम्हे  कैसे  बचाओ

इस दिवाली सिर्फ दिए ही दिए जगमगा  दो
कानून  की  न सुनो,  बस मन की सुनो और पटाख़े हटा  दो 

राम चंद्र  कह  गए  सिया  से ऐसा  कलयुग आयेंगा
ए मानव  तू तो व्हाट्स और फेसबुक  पर  दिवाली  मनाएगा

इस  बार  दिवाली  कुछ  ऐसे  मना  आओ
किसी मासूम  से  मोमबत्ती  और  दीये  खरीद  लाओ

कुछ बुद्धिजीवो का  कहना है त्योहार को बाज़ार बना रखा हैं
 पर इस  एक दिवाली  ने  कितने घरों का चूल्हा  जला  रखा  हैं

जिनके सिर  कटे  सरहदों  पर  उनकी  माँ  मातम  मनाए  या नहीं
यह  देश  को सोचना  हैं  इस दिवाली  दिए  जलाये  या नहीं

यह  बेटी  हर साल दिवाली  कुछ  ऐसे  मना  आती  हैं
जिन  बूढ़ो को  उनके चिराग़ों  ने घर  से  बेघर  कर  दिया
वो वृधाश्रम जाकर  उम्मीद  की  एक मोमबत्ती  जला आती हैं


पूरा  परिवार

यह  तो सुना  है
हम  दो  हमारे  दो
छोटा  परिवार
सुखी  परिवार 
पर  यह  पूरा  परिवार  क्या  है?
एक  बेटी हैं  एक बेटा  कर  लो 
एक बेटा है एक बेटी  कर  लो
तीन  बेटियाँ  हैं  एक  बेटा  कर लो 
इकलौता बेटा  ही  है चलो  वंश  तो है
जिसकी  कोई  सन्तान  नहीं 
हे  भगवान  कुछ  नहीं  दे  रहा  तो  सिर्फ बेटी  ही दे दे
कितनी  तुच्छ  वस्तु  हो गई  है यह बेटी
जो  सिर्फ एक  अपूर्णता  को पूर्ण  का 
दुनिया  के  मुँह  बंद  करने  का  साधन 
इसका  मतलब न  बेटियाँ  परिवार  पूरे  कर  रही हैं 
न बेटियाँ इनके अरमान  पूरे  कर  रही  हैं
कब  तक  हम  बेटियों  को  कमतर  आकेंगे
एक  बेवज़ह  अलग  वजह  बना  देंगे  
जिनकी  सिर्फ  बेटियाँ  हैं  उनका   परिवार  अधूरा  हैं 
हम  तीन  बहने  हैं  तो  हमारा  संसार  भी  अधूरा  हैं  
यह परिभाषा  पढ़े-लिखो  द्वारा  लिखी  गई हैं 
शिक्षित  व्यक्ति  क्या  बदलाव  लाएगा 
मैंने  पुरषो  से  ज़्यादा महिलाओ  को  कहते  सुना  हैं
उन्होंने  ही इस  धारणा को  चुना  हैं 
क्योंकि गरीब और अनपढ़  व्यक्ति
तो कमाने के  लिए  हाथ बढ़ाते हैं 
बेटा  हो  बेटी  वो  तो दोनों से  घर  का अनाज़  भरवाते  है
आज  एक  काम  हम  भी  करते  हैं
इस  समाज  में  एक  नयी  परिभाषा  गढत्ते  हैं 
जिनके  बेटे  पैदा हुए  उनके  परिवार  पूरे  हो   गए 
उस  बूढ़े  की  तीन  बेटियाँ  थी  उसके  ख़्वाब  पूरे  हो गए    
उसके  ख़्वाब  पूरे  हो गए........


श्राद्ध  का  खाना 

घर  गई  तो  रसोई 
चार तरह के व्यंजन से भरी पड़ी थी
मुझे पता है
मेरी माँ से इतनी मशक्कत नहीं होती
उनकी उम्र इसकी अनुमति नहीं देती
पूछा, "मैंने यह क्या कमाल है?"
यह कोई कमाल नहीं श्राद्ध का खाना है
आज कुछ नहीं पका बस यहीं खाना है
दादी तो मेरी यह सब मानती नहीं थी
नानी तो कहती थी कोई दिखावा नहीं करना
सेवा भी नहीं की तो श्राद्ध भी नहीं करना
मुझे लकवाग्रस्त, असहाय वो नज़र आती है
इन पकवानों को देख मेरी आँख भर आती है
श्राद्ध करने से दिन के बोझ कम होते है
दिल के नहीं
कोई जीवित है तो उसका दिल न दुखे
उसका मान-सम्मान होना चाहिए
जिन्हें हमसे से प्यार होता है
उस लाठी को भी तो ख़्याल होना चाहिए
आसपास के बूढ़ो की चार बातें सुन लेती हो
इसलिए नहीं कि मेरे अंदर उच्च संस्कार हैं 
"संस्कार" भारी शब्द हैं यह सिर्फ़
नारी की ज़िम्मेदारी नहीं हैं
बल्कि यह एहतराम इसीलिए है
एक मुद्दत से घर में कोई बुज़ुर्ग नहीं हैं
मैंनेसोच लिया हैं 
मुझे नहीं खाना
न मुझसे खाया जाना 
यह श्राद्ध का खाना........


बेटी 

घर पहुँची तो माँ रो रही थीं
मैंने पूछा, "क्या हुआ ?"
माँ ने कहा, पड़ोस में बेटी गुज़र गई
मैंने  धीरे से  सांस भरी
फ़िर बात शुरू करी
अच्छा हुआ गुज़र गई
बाप तो उसका एबी
माँ  सीधी-सादी  है
किसी सरकारी स्कूल में पढ़ा लेगा
निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का फायदा उठा लेगा
फ़िर  जब  स्कूल  से  निकल  जाएँगी
अपनी ज़िम्मेदारी स्वयं  उठाएँगी
ट्यूशन पढ़ाकर घर का ख़र्च भी चलाना होगा
ख्वाइशो को अलविदा कह
ज़रूरतों को गले लगाना होगा
दिल के ज़ख़्मो को मुस्कुराकर धोएगी
दुनिया  के सामने  मजबूत  बनेगी
रात को तकिये के नीचे मुह छिपाकर रोएगी
उसे  भी  हर पुरुष से घृणा हो  जाएगी 
पिता को पिता नहीं कह पाएगी
वो पिता अपने ऐबो का बोझ उसके कंधे पर रख देगा
घर  की  खिड़की को खंभे कर देगा
अपने  जैसे  ही  लड़के  ढूँढ देगा
लोगों को दिखाने के लिए उसकी डोली भी उठ जाएगी
एक लाश खुद  ही अर्थी  चढ़  जाएंगी
कोई एक तो इन अजाब से  बच गई 
माँ  अभी  भी रो  रही  है
बस रोने की वजह बदल गई
पड़ोस में  एक  बेटी  गुज़र  गई.......  
बेटी  गुज़र  गई......


सुन! मेरे बाबुला.......
मुझे जीवन में कोई राम नहीं चाहिए
मुझे भी जीवन में आराम चाहिए
घर से ऑफिस, ऑफिस  से घर कर नहीं सकती
गर्भावस्था में कोई वनवास कर नहीं सकती
आत्मनिर्भर होना मर्ज़ी होनी चाहिए
मेरी  मज़बूरी  नहीं
घर की खिड़की बनना है खंभे नहीं
लक्ष्मण रेखा मेरी सुरक्षा के लिए हो
शोषण के लिए नहीं
पति पति ही रहे परमात्मा नहीं
सुन! मेरे  बाबुला
मुझे जीवन में कोई श्याम नहीं चाहिए
मुझे शृंगार  में विरह नहीं चाहिए
साथ रहकर भी ज़िन्दगी तन्हा नहीं चाहिए
प्रेम रहे पर प्रेम की पराकाष्ठा में मन दुःखी न हो
एक उल्लासित शोर रहे इतनी  ख़ामोशी  न  हो
सुन! मेरे  बाबुला
बेटियाँ बोझ होती नहीं बना दी जाती  है
एक ज़िम्मेदारी है जो वक़्त-बेवक़्त निभा दी जाती है
हमें  भी  स्वतंत्र  होकर  जीने  का  अधिकार  चाहिए
हमें भी आधा-अधूरा नहीं पूरा आसमां चाहिए
बाबा अपने बाल चिंता में नहीं
धूप में सफ़ेद करो
इस फूल को किसी पुरुषोत्तम या
देवता के चरणों में अर्पित न करके
जिसे कद्र या सब्र हों
ऐसे साधारण के  सर-माथे  धरो
सबको पता है
बेटियाँ कुदरत की नेमत है
पर उसका यह डर कभी कम नहीं होता
कहने को तो दो घर है
पर बेटियों का कोई घर नहीं होता!!!!!!
कोई घर नहीं होता!!!!!!


गौरैया

यह बात उसकी समझ में आ गई
एक गौरैया सियादों से भरे जंगल में आ गई
अब जंगल है तो जानवर भी होंगे
कुछ बात करेंगे और कुछ घात लगाए होंगे
वैसे मसला भेड़ियों या शेरों का नहीं है
यह सीधा हमला करेंगे और मार डालेंगे
यह सियाद तो पंख कांटेगे फिर पिंजरे में डालेंगे
अब गौरैया सुन्दर है, मासूम है खतरे से अनजान है
सियाद पीछे पड़ गया
इस बात से भी परेशान है
जो उसके जैसे थे वो परिंदे तो उड़ गए
और उसके पंख किसी डाल में अटक गए
जिस चिड़िया ने समुद्र सुखाया है
वो कहानी तो उसने  भी सुनी है
इसी हिम्मत के भरोसे ही
हर गौरैया की जिंदगी चली है

वोट
वोट दे दो मोदी को
वोट न दे दो किसी जोगी को
वैसे मोदी जी ने अच्छा काम किया है
हाँ, लालू का सही इंतजाम किया है
पाकिस्तान और चीन का मुँह बंद किया है
फिर वोट दे दो पप्पू को
वोट न दे दो किसी चप्पू को
कांग्रेस ने देश का बँटवारा कर दिया
कश्मीर का पेचीदा मसला खड़ा किया
आधा पंजाब पाकिस्तान को दिया
मुझे याद है जब भी मेरी नानी
बँटवारे की कहानी सुनाती थी
उनकी आँख भर आती थी
बुआ और बबुआ मिलकर वोट माँग रहे है
दोनों जिन मुसलमानों को बलगा रहे है
उन्हीं की खातूनें साइकिल और हाथी
दोनों को ऐसे घुमाएँगी
ये सवारी यूपी से बाहर भी वोट न ले पाएँगी
किंगमेकर ऐसा आउट होगा
पीएम बनने का सपना तार-तार होगा
उधर बंगाल में ममता भी वोटिंग के गीत है गाती
वो ऐसी देशभक्त है जो वंदे मातरम् नहीं गाती
मुझे कोई नारी सशक्तिकरण का बिगुल नहीं बजाना
ओ स्त्री-सोनिया, ममता, मायावती तुम मत आना
दिल्ली से झाड़ू भी झाड़ू घुमा रहा है
हौसला है सीएम वोट माँग रहा है
और चाटे भी खा रहा है, फिर क्या करना है??
वोट देना भी देशभक्ति है
वोट ही हर भारतीय की शक्ति है
हर भारतीय की शक्ति है..

यह  कैसा  राजा  है

यह  कैसा  राजा  है  अँधा  है
लूला  लंगड़ा , बहरा  राजा  है
शायद  बहरा  है,
तभी इसे  प्रजा  की
चीत्कार सुनाई  नहीं  देती या
फिर अंधा  भी  है
उस  धृतराष्ट्र  की तरह
जिसका  पुत्र  मोह
पूरे राज्य  का  सर्वनाश
कर  गया!!!
यह तो  कुर्सी  की  माया  से  लिप्त   है
इसे  प्रजा  की  व्यथा  दिखाई  नहीं  देती
और  सुनो  लूला-लंगड़ा  भी है
चिपका  रहता  है  कुर्सी  से  उठ नहीं  सकता
जनता  के  साथ  खड़ा नहीं हो सकता 
फिर क्यों  विकलांग को राजा बना रखा है?
राज्य में त्राहिमान मचा रखा  है
क्या करे ! किसी बड़े  मंत्री चापलूस की
चापलूसी  करके आया  है
चप्पल चाट भी  रहा है और चाटकर  आया  है!!
प्रजा  की  कमाई से इसके महल  बन रहे  है
गरीब  जनता की छत  के पत्थर हिल  रहे  है
आज  देश का  तभी  तो  पतन हो  रहा  है
भ्रष्टाचार  का  पौधा  फल  फूल  रहा  है
ये  एक  अच्छा  काम  करके  गिनाते  हैं
हज़ार  बुरे  काम  कर बचकर  निकल जाते हैं
तो अब  क्या  होगा ??
बस, हम भी मेहनत कर रहे है
और किस्मत के धनी लोगों से  लड़ रहे  है
तकदीर का लिखा भी बदलता है
राजा  भी  कभी  रंक  बनता  है!!
तब तक तो सबको यही कहना है
अँधा, लूला-लंगड़ा, बहरा
ऐसे ही राजा को  सहना है!!!
राजा को  सहना है!!!

हिंदुस्तान

तुम कहते हो मेरे देश में घूसखोरी, भ्रष्टाचार
काला बाजारी, गंदगी, बलात्कारी और सीनाज़ोरी है
फिर मैं तो कहूँगी तुमने
मैसूर के शेर टीपू सुल्तान नहीं देखे
शिवाजी का युद्ध कौशल, रिपु संहार नहीं देखे
तुम झाँसी के उस मैदान से नहीं गुजरें
कानपुर, बरेली, बिहार, लखनऊ ग्वालियर
की गलियों में नाना साहिब, कुँवर सिंह, तांत्या तोपे
भक्त खाऩ और छबीली की वीरता से लबालब
वो दीवारों पर तलवारों के निशां नहीं देखें।
पंजाब की मिट्टी को माथें से नहीं लगाया
क्या कभी कोई ऊधम सिंह, भगत सिंह
जलियाँवाला बाग के बाहर खेलता नज़र नहीं आया
आज भी अमृतसर में शहीदी के मेले लगते है
साहिबे कमाल हो, उनके लाल, या लाल-बाल-पाल
धर्म और देश भक्ति के लिए खून से लथपथ सीने
और कटे सिर नहीं देखे
साबरमती के आश्रम में दीपक नहीं जला सकें।
अंखड भारत के निर्माता पटेल के समक्ष
सिर नहीं झुका  सकें।
कारगिल की बरफीली पहाड़ी पर लहराते तिरंगे नहीं देखे
तुमने पुलवामा के शहीदों के जनाजे़ नहीं देखें
आज भी कश्मीर की घाटी में कोई जवान चिर निद्रा में सोता है
माँ का अँचल कफन होता, राखी का धागा और पक्का होता है
यह वो देश है जहाँ गंगा-जमुनी  संस्कृति  का संस्कार दिखता  हैं 
होली के रंगों से जात-पात का भेद मिटता है।
देवकी-यशोदा की गोद में पलते
वो पाँच से पचास के हुए लाल नहीं देखें
माना मेरे देश में कई कमियाँ है
मगर पाप धोती गंगा मैया है
इसकी गौरव गाथा का गान विश्व में गाया जाता है
जब आज़ादी मिलते-मिलते दो-सौ साल लग गए
तो कुछ शब्दों में देश के शौर्य का बखान कैसे करो
तुमने देख तो लिया होगा देश
पर तुमने पत्थरों में भगवान नहीं देखे
जिनके दिलों में हिन्दुस्तान न बसता हो
मैंने वो इंसान नहीं देखे
वो इंसान नहीं देखे।।।।।।।।

मातृभूमि

मेरी मातृभूमि तुझसे  उतना प्रेम है
जितना कबीर को था अपने राम से
मेरी मातृभूमि तुझसे उतना स्नेह है
जितना राधा को था अपने श्याम से
माँ तेरे अँचल की रक्षा के लिए
भगत, आज़ाद, ढींगरा, खुदीराम,
सुखदेव, राजगुरु वार दिए
प्रताप, गांधी, तिलक, ने सारे सुख त्याग दिए
सावरकर का ओज स्वर आज भी हृदय को झंझोरता है
लाल जो तेरी पावन मिट्टी पर पैदा हुए
उसी मिट्टी के लिए शत्रु के दाँत खट्टे करता है
देख! हम कश्मीर को भी दहशतगरदों से
छीन लाए हैं
जन्नत में तिरंगे भी लहराएँ है
मेरी मातृभूमि  तुझसे  उतना प्रेम है
जितना श्रवण कुमार को था अपने माँ-बाप से
तेरे आँगन में सोना सदा लहराएँगा
नदियों का नीर तेरे चरणों को धोता जाएँगा
पूरा देश आलोकित होता है तेरी मुस्कान से
मेरी मातृभूमि  तुझसे  उतना प्रेम है
जितना हर भगत को है अपने भगवान से।।।


नन्हे-मुन्ने बच्चे

नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में होगा
तेरे सपनो का भारत 
जहां भारत में हरियाली होगी 
किसानों की क़र्ज़ मुक्त दिवाली होगी
एकता के रंग की होली खेलेंगे 
अबीर के बहाने
इंसान को इंसान गले लगा लेंगे
धर्म-जात-पात की धारा हटाएँगे 
आज़ादी की डोर से नई
उम्मीदों की पतंग उड़ाएँगे
हम हर राज्य में
मोहब्बत का ताजमहल बनाएँगे
पढ़ाई करकर नौकरी भी करेंगे
इंजीनियर बन देश की रक्षा करेंगे 
तिरंगे में लिपट जब घर को 
लौट आएँगे तो आँखों के आँसू बन
पूरे देश को रुलाएँगे
फिर यही यादें समेटकर 
भारत  माँ  को  सलाम  करेंगे
आँखों में रहेगा एक 
सुसम्पन्न और विकसित भारत
मेरा भारत, तेरा भारत
गुरबत, मजबूरी, बेकसी से दूर 
उम्मीदों, उमंगो के  रंग क्या-क्या
फिर मत पूछना इसकी मुट्ठी में क्या
पूरे विश्व को हमारा हौंसला देखना होगा
हर मुट्ठी में मज़बूत और समृद्ध  भारत होगा!!!!  

यह प्रेम की नीर
आँखों से बहता नीर
विराहाग्नि से झुलसा तन
बेसुध, व्याकुल, तड़पता मन
यह खामोश उदास आँखें
शून्य में विलीन होती साँसें
रहगुज़र पर बैठ देखती राह
हरदम मुँह से निकलती आह
अधूरी चाहतों की
भूली बिसरी कहानी
वो रो पड़ी दिवानी
बस यहीं तो पूछा था
कि राधा तेरा श्याम कहा है? 



परिवर्तन

आसमां से धुएँ का धुंध हट गया 
हीर को चाँद में रांझा दिख गया 
चिड़ियाँ चहचहाने लगी है
गंगा खुश है कि बहन यमुना 
विमल हो मुस्कुराने लगी है
छतों से पहाड़ दिख रहे हैं
उल्लू, नीलगाय, मोर, हिरन
स्वच्छंद हो विचरण कर रहे हैं
पतझड़ में भी बसंत है
जीव-जंतु अब अरिहंत है
प्रकृति ने सूखे पत्तों से श्रृंगार कर लिया
मानव ने पिंजरे के पक्षी का दर्द समझ लिया
यह कैसा परिवर्तन है
यही समझा रही है
हमने जो इस सृष्टि को दिया है
कुदरत वहीं लौटा रही है।।।।


वक़्त

वक्त ही तो नहीं  है मेरे  पास
जब वक़्त  था तो
ईट-पत्थर  गिन-गिनकर जोड़ता  रहा
अपनी कितनी ही ख्वाइशों  के पीछे भागता  रहा
सुख-सुविधा  जुटाने  भर  को
जीवन  का  उद्देश्य बना  दिया
संतुष्टि  की  वाणी  को  सुना  नहीं
थक  गया  था  फ़िर  भी  किसी  से कहा  नहीं
किसी  रूठे  को नहीं  मनाया
अपनों  को ठीक  से  गले  नहीं  लगाया
क्षमा  रूपी  धन  खर्च  नहीं  किया
किसी  निर्धन  को  कोई   दान   नहीं   दिया
ईश भक्ति  का  कोई  पल  नहीं   है
साध-संगत  का   कोई  कर्म  नहीं  है
आज  मृत्यु बहुत  क़रीब है
बहुत  कुछ  कहना  है  अपनों   से
पर  समय  का  पंछी नहीं  सुनता  कोई बात
एक पछतावा  जब जीवन  था
तब  भी  थी  प्यास  और  जाते  वक़्त आज भी मन  उदास
क्योंकि अब वक्त ही तो नहीं  है मेरे  पास !!!!!!!















  




      




























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